महाश्मशान – मणिकर्णिका घाट और नृत्य नगर वधुओं का
बनारस के लिए एक पंक्ति काफी प्रचलित है- ‘जिसने भी छुआ वो स्वर्ण हुआ, सब कहें मुझे मैं पारस हूं, मेरा जन्म महाश्मशान मगर मैं जिंदा शहर बनारस हूं.’
ग़ालिब ने भी बनारस के लिए ज़िन्दगी और ज़िंदादिली जैसे शब्द कहे हैं , ऐसे ज़िंदादिल शहर बनारस के महाश्मशान मणिकर्णिका घाट (MahaShamshan Manikarnika Ghat) में समागम होता है रूप और लावण्य का, महावर लगे पैर थिरकते हैं सारी रात , श्मशान् में धधकती आग के साथ।
बनारस जहाँ की हवाओं में चिता की राख घुली रहती है, बनारस जहाँ मृत्यु और जीवन एक ही सीढ़ी पर खड़े मिलते हैं ऐसी धर्म की नगरी बनारस में सदियों पुरानी एक और परम्परा है जो बताती है की समाज के हर एक तबके का सम्मान किया जाना आवश्यक है। यह प्रथा है बनारस के महाश्मशान में चैत्र माह के नवरात्रों की सप्तमी को होने वाले तवायफों के नृत्य समारोह की।
तवायफें जो मज़हब, शराफत, और तालीम का ऐसा गढ़ हुआ करती थी जहाँ नवाब और समाज के रसूखदार लोग अपने बच्चों को तमीज- तहज़ीब सीखने के लिए भेजा करते थे।
एक तरफ जीवन के आखिरी चरण को बताता महाश्मशान और दूसरी तरफ जिंदगी की रंगीनियों से लबरेज़ तवायफें जिनके यहाँ मौत शब्द का दाखिल होना तक मना था, कैसे हुआ होगा इनका संगम। बनारस के इस रूहानी-रूमानी माहौल के संगम की कहानी आज भी मणिकर्णिका घाट (MahaShamshan Manikarnika Ghat) पर एक दिन के लिए जीवंत हो उठती है।
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मणिकर्णिका घाट पर तवायफों के नृत्य का इतिहास
इस परंपरा का अपना एक इतिहास है । एक ऐसा इतिहास जिसके साझीदार इतिहासकार ही नहीं बनारस के पुरनिया भी हैं। इनके अनुसार 14 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजा मानसिंह काशी पधारे । इस दौरान उन्होंने मणिकर्णिका तीर्थ पर अवस्थित श्मशान् के अधीश्वर महाश्मशाननाथ के मंदिर का जीर्णोंद्धार कराया। परंपरा के अनुसार इस तरह के निर्माण के बाद मंगल उत्सव का आयोजन होता है जिसके तहत सम्पूर्ण सज धज के साथ धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं । इसी मंशा से राजा मानसिंह ने नगर के संगीतकारों और गीतकारों को आमंमत्रित किया। परंतु संदेहयुक्त पूर्वाग्रह के चलते चर्चित और जाने माने कलाकारों ने इस उत्सव में भाग लेने में असहमति दिखाई। कलाकारों की इस प्रतिक्रिया से आहत राजा मानसिंह ने उत्सव स्थगित करने का निर्णय लिया और बिना आयोजन के ही काशी से लौटने की तैयारी करने लगे।
कहते हैं कि ऊपर वाले की रहमत पर किसी की नजर नहीं लगती । ये खबर जब शहर की तवायफों तक पहुँची तो उन्होंने नटराज स्वरूप अपने आराध्य महाश्मशानेश्वरनाथ के अभिनंदन और अगवानी के लिए गीत संगीत का उत्सव सजाने का निर्णय लिया। अपने इस निर्णय को नगर वधुओं ने सहज शील – संकोच वाले आग्रह के साथ संदेश के रूप में राजा मानसिंह तक भिजवाया।ये संदेश पाकर मानसिंह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन नगर वधुओं को मान- सम्मान के साथ रथ भेज कर उत्सव में शामिल होने के लिए बुलवाया। तब से लेकर आज तक 354 वर्ष पुरानी यह परंपरा पूरे सज धज के साथ निरंतर काशी को गुलजार करती आ रही है।
इतिहास की एक और कहानी
एक अन्य संदर्भ आता है राजा जय सिंह का, कहा जाता है की दशाश्वमेध घाट पर राजा जयसिंह मान महल का निर्माण करा रहे थे और उसी समय महाश्मशान जी के मंदिर का भी निर्माण कराया गया , हिन्दू परम्परा अनुसार शुभ कार्य में संगीत को आवश्यक जान कर राजा ने शहर के संगीतकारों को निमंत्रण भेजा, किन्तु उन्हें ऐसा कोई संगीतकार नहीं मिला जो महामशान पर संगीत प्रस्तुत कर सके। तब काशी की नगर वधुएं आगे आई और अपने आराध्य को महाश्मशान (MahaShamshan Manikarnika Ghat) की भूमि पर नृत्याजलीं व गीतांजलि की एक अप्रतिम भेंट अर्पित की। शहर की तवायफों के इस समर्पण को देख कर राजा जय सिंह ने प्रत्येक वर्ष चैत्र नवरात्र की सप्तमी को इस आयोजन को करने की आज्ञा दी और इस प्रकार एक नई परम्परा का श्री गणेश हुआ।
तीन सौ साल से भी अधिक पुरानी इस परंपरा का निर्वहन करती ये नगर वधुएँ साल भर तक प्रतीक्षा करती हैं इसी दिन का। देश के कोने कोने से आयी नृत्यांगनाएँ मसाननाथ के सामने मुक्ति की कामना के लिए अपने संगीत और नृत्य का प्रदर्शन करती हैं। मुक्ति की कामना से तात्पर्य अगला जन्म अपने मान सम्मान और स्वाभिमान के साथ पाने की कामना है।
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समय के साथ बदलता गया रंग-रूप
समय के साथ नए कलेवर भी चढ़ते गए इस परंपरा में। मणिकर्णिका घाट (MahaShamshan Manikarnika Ghat) के व्यवस्थापक गुलशन कपूर बताते हैं कि महश्मशाननाथ का वार्षिकोत्सव त्रिदिवसीय होता है जो वासंतिक नवरात्र के पंचमी तिथि से आरंभ होकर सप्तमी तिथि तक चलता है । इस क्रम में पंचमी तिथि को वैदिक रीति से रूद्राभिषेक होता है , अगले दिन भोग भंडारे का आयोजन होता है जिसमें पंचमतार का भोग लगाया जाता है । तीसरे और अंतिम दिन यानि सप्तमी तिथि को तंत्र पूजन के बाद देर रात से आरंभ होकर भोर में मंगला आरती होने तक नगर वधुएँ श्मशान् के अधीश्वर के सामने अपनी मुक्ति की कामना का उद्गार अपने तरीके और अपने रिवाज से व्यक्त करती हैं। यहाँ शामिल होने के लिए ये नगर वधुएँ न कोई शुल्क लेती हैं और न ही किसी भौतिक साधन का लोभ लेकर आती हैं।
मह मह करती बेले की खुशबू , चटकीले और सजीले लिबास , धधकती चिताओं के बीच सुनायी देता करूण क्रंदन और उन्हीं के बीच प्रतिघ्वनित होती घुँघरूओं की आवाज। इन सबके बीच एक जीवन दर्शन जुड़ा है…सत्यं शिवं सुंदरम् को परिभाषित करने का एक अंदाज जिसे अघोरेश्वर शिव भलीभांति समझते हैं। शिव , शव और सौन्दर्य का समागम एक पल के लिए विरोधाभासी लग सकता है पर ये काशी के इस दर्शन को व्यक्त करता है कि शिव की नगरी में जीवन और मृत्यु दोनों सर्वदा वंदनीय हैं।
दुर्गा दुर्गति नाशिनी , डिमिक डिमिक डमरू बाजे …से आरंभ फिर खेले मसाने में होली दिगंबर …और आखिर में लागा चुनरी में दाग छुड़ाऊं कैसे…जैसे गीत भाव विभोर होने के साथ द्रवित भी कर देते हैं। दादरा , ठुमरी , चैती आदि बंदिशों पर नृत्य से समूचा मणिकर्णिका गुंजायमान हो उठता है। ये दृश्य होता है महाश्मशानाथ की फूलों की झांकी के बीच महाराष्ट्र , बिहार , मध्य प्रदेश सहित देश भर से आयी नगर वधुओं की शिव को समर्पित नतमस्तक हाजिरी का…जहाँ शिव और शव सर्वथा वंदनीय हैं।
तुम सुनो नाथ से गुहार मेरी…
ये खुला आकाश कुछ मेरा हो…
तेरी छतरी के नीचे , मेरा भी रैन बसेरा हो।
ये जीवन दर्शन है उस सौन्दर्य समागम का जो हर वर्ष काशी की धरती पर मणिकर्णिका की रौनक बनता है। इसके पीछे बस एक ही आस कि सबको तारने वाले अघोरेश्वर शंकर उन्हें भी इस अभिशप्त जीवन से मुक्ति देकर मोक्ष का अधिकारी बनाएँगे।
ये धर्म और ज्ञान का ज़िंदा शहर बनारस नगर वधुओं की मुक्ति की प्रार्थना महादेव से करता है।