ध्रुपद महोत्सव: काशी की अनूठी सांस्कृतिक पहचान
ध्रुपद महोत्सव (Dhrupad Mahotsav) वास्तव में एक संगीत समारोह है, जिसका आयोजन वाराणसी में हर वर्ष किया जाता है। ध्रुपद महोत्सव के लिए काफी पहले से तैयारी शुरू कर दी जाती है, क्योंकि ध्रुपद मेला के नाम से भी जाने जाने वाले इस महोत्सव का महत्व न केवल वाराणसी तक ही सीमित है, बल्कि इसकी ख्याति देश और दुनियाभर में फैली हुई है। ध्रुपद महोत्सव में प्रस्तुति देने वाले कलाकार सिर्फ काशी के ही नहीं होते, बल्कि वे अलग-अलग राज्यों और अलग-अलग देशों से भी यहां प्रस्तुति देने के लिए आते हैं।
ध्रुपद क्या है? (What is Dhrupad)
ध्रुपद महोत्सव(Dhrupad Mahotsav) के बारे में इससे पहले कि हम आपको बताएं, उससे पहले आपको यह जान लेना चाहिए कि आखिर यह ध्रुपद है क्या। दरअसल उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत की कई प्राचीन गायन शैली रही है। ध्रुपद भी इन्हीं गायन शैलियों में से एक है। ध्रुपद वह गायन शैली है या यह गायन की एक ऐसी परंपरा है, जो चार अलग-अलग परंपराओं या चार अलग-अलग बानियों के रूप में विकसित हुई है। ये परंपराएं नौहार, डागुर, गौड़हार और खंडार के नाम से जानी जाती हैं।
ध्रुपद की यह विशेषता है कि इसमें आपको तरह-तरह के लय सुनने को मिलते हैं, जो कि एक-दूसरे से एकदम अलग होते हैं और आपको मदहोश कर देते हैं। यदि यह कहा जाए कि ध्रुपद में स्वर और ताल के साथ पद का बड़ा ही सुंदर समन्वय होता है, तो यह कहना बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि वास्तव में इन सभी के संयोजन के कारण जो स्वर और लय पैदा होते हैं, उनका कोई जोड़ ही नहीं होता। ध्रुपद गए जाने के दौरान विशेषकर इसके आलाप को सुनना अपने आप में बड़ा ही अनूठा अनुभव होता है, जो कि शायद ही किसी और तरह के संगीत को सुनने से आपको मिलता हो।
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ध्रुपद महोत्सव का इतिहास (History of Dhrupad Mahotsav)
जहां तक ध्रुपद मेला के इतिहास की बात है, तो इसकी शुरुआत को लेकर विद्वानों के मत बंटे हुए हैं। कई विद्वान यह मानते हैं कि ध्रुपद संगीत की परंपरा लगभग 15वीं शताब्दी के आसपास मूर्त रूप लेने लगी थी और ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने संगीत की नई परंपरा को ढूंढ कर निकाला था। वहीं दूसरी ओर बहुत से विद्वान यह मानते हैं कि राजा मानसिंह तोमर ने ध्रुपद का आविष्कार नहीं किया था, बल्कि उन्होंने इस परंपरा को विकसित करने में अपनी भूमिका निभाई थी।
फिर भी इतिहास इस बात का गवाह है कि ध्रुपद संगीत हमारे प्राचीन भारतीय मंदिरों का हिस्सा रहा है। साथ ही अलग-अलग राजदरबारों द्वारा भी इसे संरक्षण दिया गया है। यह बात जरूर है कि कई सौ वर्षों तक ध्रुपद संगीत की परंपरा दब गई थी, लेकिन 20वीं शताब्दी में एक बार फिर से यह उभरकर सामने आई। भारतीय कलाकारों ने एक बार फिर से इसे विकसित करने में अपना योगदान देना शुरू किया।
अब चूंकि प्राचीन काल से ही काशी भारत की सांस्कृतिक परंपराओं का एक प्रमुख केंद्र रहा है, ऐसे में ध्रुपद संगीत के विकास में देश में सबसे बड़ा योगदान इस पवित्र नगरी का ही रहा है। काशी की धरती से जो ध्रुपद परंपरा की शुरुआत हुई, धीरे-धीरे यह पूरे देश में फैलते हुए अब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में भी इसने अपने पांव पसारने शुरू कर दिए हैं।
काशी में ध्रुपद मेला (Dhrupad Mela in Kashi)
काशी में ध्रुपद मेला की शुरुआत का श्रेय संकटमोचन मंदिर के पूर्व महंत प्रोफेसर वीरभद्र मिश्र को दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने ही वर्ष 1975 में ध्रुपद मेला समिति की शुरुआत की थी और इसमें काशीराज विभूति नारायण सिंह ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। महाराजा बनारस विद्या न्यास मंदिर और द्रुपद समिति द्वारा मिलकर हर वर्ष इसका आयोजन सफलतापूर्वक किया जाता रहा है।
सबसे बड़ी बात यह है कि कोरोना महामारी के दौर में भी ध्रुपद मेले का आयोजन नहीं रुका था। काशी का ध्रुपद महोत्सव अंतरराष्ट्रीय स्वरूप भी ले चुका है। तुलसी घाट पर आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय ध्रुपद मेले में देसी और विदेशी कलाकार तो अपनी प्रस्तुति देते ही हैं, साथ में दुनियाभर से लोग इसका साक्षी बनने के लिए वाराणसी पहुंचते हैं।
ध्रुपद महोत्सव को और समृद्ध बनाने में काशी के अलग-अलग संस्थानों एवं विद्वानों ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ओर से भी ध्रुपद महोत्सव मनाया जाता है। साथ ही मशहूर पखावज वादक पंडित श्रीकांत मिश्र की याद में भी पंडित श्रीकांत मिश्र ध्रुपद फाउंडेशन की तरफ से भी हर वर्ष ध्रुपद मेला का आयोजन किया जाता है।
ध्रुपद महोत्सव में कलाकार ध्रुपद संगीत की अलग-अलग विधाओं की प्रस्तुति देते हैं। उनकी प्रस्तुति से संगीत का ऐसा रस टपकता है, जिसे चखकर दर्शकों को एकदम अलौकिक अनुभव होता है। ध्रुपद संगीत की यह विशेषता ही रही है कि इसमें अलग-अलग रस और पद मिल कर भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक अलग ही रूप का दर्शन कराते हैं। ध्रुपद महोत्सव इस बात का एहसास दिलाता है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की जितनी भी विधाएं आज चलन में हैं, इन सभी का जन्म ध्रुपद के ही अंशों से हुआ है।
ध्रुपद पर आधारित कैलेंडर (Calender Based on Dhrupad)
काशी में ध्रुपद महोत्सव(Dhrupad Mahotsav) का आयोजन हर वर्ष करके ध्रुपद की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने की कोशिश तो प्रमुखता से की ही जा रही है, मगर साथ में पिछले कई वर्षों से ध्रुपद शैली पर आधारित एक कैलेंडर भी जारी किया जा रहा है, जिसमें आपको तारीख के साथ संगीत विद्या की शैली के बारे में विस्तार से जानकारी मिलती है। वर्ष 2022 का भी कैलेंडर जारी किया जा चुका है, जिसमें कि ध्रुपद गायन शैली के बारे में विस्तार से बताया गया है। साथ ही इसमें बैजू बावरा, तानसेन और स्वामी हरिदास के साथ कई वरिष्ठ ध्रुपद कलाकारों के बारे में बताया गया है।
और अंत में
ध्रुपद महोत्सव(Dhrupad Mahotsav) या ध्रुपद मेला काशी की ऐसी सांस्कृतिक पहचान है, जिसे इस शहर ने वर्षों से जीवित रखा है और इसके प्रचार-प्रसार में अपना योगदान देकर भारतीय शास्त्रीय संगीत को दुनियाभर में लोकप्रिय बनाने में अपना योगदान दिया है। हर वर्ष शिवरात्रि के समय आयोजित होने वाले ध्रुपद महोत्सव का साक्षी आपको भी एक बार जरूर बनना चाहिए, क्योंकि इस अनुभव को भुला पाना आपके लिए कभी भी मुमकिन नहीं होगा। यदि आप रंगभरी एकादशी में शामिल होने के लिए काशी आते हैं, तो आपको एक बार ध्रुपद महोत्सव का भी हिस्सा बनाने के लिए यहां जरूर आना चाहिए।
पूछे जाने वाले आम सवाल (FAQs)
ध्रुपद महोत्सव का आयोजन कहां किया जाता है?
ध्रुपद महोत्सव का आयोजन हर साल मुख्य रूप से तुलसी घाट पर होता है। साथ ही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय एवं कई अन्य संस्थानों द्वारा भी इसका आयोजन किया जाता है।
ध्रुपद मेला में कौन-कौन प्रस्तुति देते हैं?
ध्रुपद मेला में देश-विदेश से आए ध्रुपद संगीत विधा में पारंगत कलाकार अपनी प्रस्तुति देते हैं।
काशी में ध्रुपद महोत्सव का आयोजन कब होता है?
ध्रुपद महोत्सव का आयोजन आमतौर पर महाशिवरात्रि के समय होता है।