चिता भस्म होली: राग- विराग का अद्भुत उत्सव
अध्यात्म और उत्सवधर्मिता की अलख जगाये हुए शहर बनारस फाल्गुन शुक्ल की द्वादशी को एक निराले ही रंग में रंग जाता है। इस दिन काशी नगरी दुनिया को ये बताती है की क्यूँ इस शहर में आ कर लोग गँगा किनारे अकेले बैठ कर भी मुस्कुराते हैं, क्यूँ यहाँ आने वाला हर इंसान ठठा कर हँसता है लेकिन फिर भी अपने अंदर एक ठहराव महसूस करता है। यह खास दिन होता है चिता भस्म होली(Chita Bhasma Holi) को खेलने का।
ठहराव और गति के संयोजन का उत्सव- चिता भस्म होली(Chita Bhasma Holi)
कब होती है यह होली
सात वार और नव त्यौहार वाली नगरी काशी में फाल्गुन शुक्ल एकादशी यानी रंग भरी एकादशी का रंग, अबीर, गुलाल , डमरू, ढोल-ताशे का खुमार अभी उतरा भी नहीं होता है और बनारस के क्या नौनिहाल क्या सुधिजन सभी चल देते हैं मणिकर्णिका घाट की तरफ, वही मणिकर्णिका घाट जहाँ चिताओं का जलना कभी थमता नहीं, एक अलग ही उत्सव का साक्षी बनने।
यह उत्सव है “चिता भस्म होली” का, जो खेली जाती है फाल्गुन शुक्ल की द्वादशी को।
किवदंतियों, गुरुजनों और बनारस की हवाओं के अनुसार लगभग 350 साल पहले शुरू हुई इस होली के पीछे की कहानी कुछ इस प्रकार है-
मसान की होली को समझने के लिए हमें रंग भरी एकादशी से आरम्भ करना पड़ेगा। बनारस की रंग भरी एकादशी यानी माता पार्वती का पहली बार अपनी ससुराल आगमन, काशी के पुराधिपति माता पार्वती का गौना करा कर अपने धाम वापस आते हैं और बाबा के इस आगमन का, गृहस्थ जीवन में उनके प्रवेश का उल्लास पूरी बनारस नगरी खूब धूम-धाम से मनाती है। भक्त, माता-पिता की पालकी को काँधे पे उठाये हर-हर महादेव की गूँज के साथ बनारस की गलियों, चौबारों को अबीर, गुलाल और रंगों से भर देते हैं।
अपने धाम अर्थात काशी विश्वनाथ मंदिर तक की यह यात्रा बाबा भोलेनाथ मंद-मंद मुस्कुरा कर पूरी करते हैं, भक्तों द्वारा अर्पित किये हर रंग, हर भाव को स्वीकार करते हैं लेकिन बाबा अपने गणों को भूले नहीं हैं। महादेव के गण यानी भूत, प्रेत, पिशाच, औघड़ जो इस उत्सव में बाबा की पालकी के पीछे पीछे बनारस की गलियों से गुज़रे नहीं हैं, साथ ही औघड़ शिव अपने भक्तों को भोले की नगरी का वासी होने के सौभाग्य को एक बार फिर याद दिलाएंगे।
चिता भस्म होली
धुलैंडी से तीन दिन पहले महाश्मशान मणिकर्णिका घाट, जहाँ निरंतर चिताओं की अग्नि प्रज्वलित रहती है, पर ब्रम्हांड के औघड़ अपने गणों के साथ रंगों और चिता भस्म से भरी होली खेलने को उपस्थित होते हैं और काशीवासियों को भी इस उत्सव में शामिल होने के लिए आमंत्रित करते हैं।
सोच कर देखिये कितनी अद्भुत बात है, जो भूत, प्रेत पिशाच, औघड़ सन्यासी दुनियावी उत्सवों से दूर श्मशान में वास करते हैं बाबा ने उन्हें आज जीवन के उत्सव में रंगों के साथ शामिल किया है और सारे गण हर्षोल्लास के साथ पूरे वातावरण को रंगों से सराबोर किये जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ जीवन की आपाधापी से घिरे मनुष्यों को बाबा मृत्यु का उल्लास मनाने को, चिता भस्म से होली खेलने को महाश्मशान ले आये हैं। जीवन और मृत्यु का ऐसा संगम, ऐसा उल्लास देखा है कहीं और?
महाश्मशान जहाँ कोई रंग नहीं है जहाँ की नीरवता को तोड़ती हैं चिता के चटखने और झिंगुरों की आवाज़ें, जहाँ अश्रुपूरित आँखों को कुछ दिखाई नहीं देता उसी महाश्मशान में महादेव उत्सव रच देते हैं, उत्सव रंगों का, भस्म का, डमरू, ढोल, नगाड़ों का।
क्या सिखाती है हमे यह होली
आत्मा जो अजर अमर अविनाशी है, ईश्वर में विलीन होने तक की उसकी लम्बी यात्रा के दो पड़ाव मात्र हैं जन्म और मृत्यु, मृत्यु अंत नहीं है यह तो शिखर है, चरम अनुभव है जीवन का, एक चोले से दूसरे चोले के बीच का द्वार है मृत्यु। इस बात को कहना जितना आसान है स्वीकार कर इसे आत्मसात करना उतना ही मुश्किल।
जीवन-मरण सम भाव” अर्थात निःस्पृह, निर्लिप्त भाव से जीवन और मृत्यु को देखने का जो शऊर है वह सिखाती है हमें चिता भस्म होली(Chita Bhasma Holi)।
नाम का अर्थ
इस उत्सव को चिता भस्म होली(Chita Bhasma Holi) इसलिए भी कहा गया कि रंगों के साथ श्मशान की चिताओं की राख से भी होली खेली जाती है। रंगों के साथ चिता की राख का मिश्रण, वाह! ऐसा तो सिर्फ महादेव की नगरी काशी में ही संभव है।
महाश्मशान में होली अर्थात जीवन के उल्लास के साथ साथ आत्मा के चोला छोड़ने का भी उत्सव। एक चोले की राख में दूसरा चोला उल्लास के साथ रंग गया है, जीवन है उसका भी उत्सव, जीवन नहीं है उसका भी उत्सव। इतने निर्लिप्त भाव से जीवन जिओ की ना तो इस शरीर का घमंड हो तुम्हे और ना ही इसके छूटने की पीड़ा।
इस होली के रंग और राख में लिपटे हुए महादेव कहते हैं मृत्यु भय नहीं है यह तो एक उत्सव है और इसे संसार के सभी जीवों को एक साथ उल्लासपूर्वक मनाना चाहिए इसीलिए तो शिव अपने गणों ( भूत,प्रेत पिशाच, औघड़, विकृत आकृति वाले जीव ) और मनुष्यों के संग एक साथ होली खेलते हैं।
“मन, प्राण और देह के साथ और उसके इतर भी जिस उत्सव को जीता है मेरा बनारस वह है चिता भस्म होली”
बड़े-बड़े डमरुओं की आवाज़ के साथ हर-हर महादेव की जीवंत ध्वनि और हवा में उड़ती चिता की राख ये एक ऐसा उत्सव ऐसा उल्लास है जिसे शब्दों में बाँधना मुश्किल है।
गंगा अविरल बह रही हैं, चिताएं जल रही हैं, आग की लपटों में चोला भस्म हो चुका, हर तरफ रंग में डूबे खिलखिलाते चेहरे हैं, डमरू, ढोल-ताशों की आवाज़ों के साथ तालमेल बिठाने को ह्रदय गति चली जा रही है, मैं पीछे पलट कर देखता हूँ, ब्रम्हांड के औघड़ मेरे बाबा औघड़ीय परम्परा को बरकरार रखते हुए दो जीवन के बीच के द्वार पर खड़े रंगों और राख के उत्सव की मस्ती में झूम रहे हैं, मैं मुस्कुरा देता हूँ, यह मुस्कराहट अंतरात्मा की है, आज यहाँ खड़े हो कर मैंने जीवन मरण सम भाव को आत्मसात कर लिया है और अब इसे गुनु कैसे यह भी मेरा यही बनारस सिखाएगा मुझे।
तब तक के लिए हर हर महादेव !!!